Live your thoughts
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पप्पू उस समय में अपने माता-पिता और एक बहन के साथ बनारस के एक बहुत ही पुराने मोहल्ले में रहता था जो कि आज भी अपनी गलियों के लिए प्रायः जाना जाता है। घर का सबसे छोटा लड़का था पर जिम्मेदारियाँ तो बड़ी थीं। कहने को तो उसके कई बड़े भाई-बहन थे पर वह सभी लोग अपने जीवन-यापन के लिए और शहरों का रुख कर लिए थे जिससे की परिवार की बाकी जरूरतें पूरी हो सकें। महज १३ साल का ही तो था पप्पू जब उसके पिता ने उसके सामने ही बनारस के एक नामी अस्पताल में रात को दो बजे के वक़्त दम तोड़ा था। उस रात मां का रुदन और असहज परिस्थिति ने जैसे उस नन्हें बच्चे की अंतरात्मा को झकझोर दिया था। वह ही तो था जो १० साल की उम्र से हर महीने अपने बूढ़े पिता को लेकर बनारस की कोषागार (ट्रेज़री) में जाता था और सभी कागज़ी कार्यवाही करवाते हुए स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से २७६ रुपये की पेंशन लेकर ख़ुशी-ख़ुशी घर आता था। इस प्रक्रिया में कोषागार के सभी लिपिक, कर्मचारी और यहाँ तक की कोषाध्यक्ष भी इस बच्चे को अच्छे से पहचानते थे और बात भी करते थे।
यह कहानी उसी पप्पू की है जो अपनी छोटी उम्र की वजह से सभी पर विश्वास करता था। यह भी कह सकते हैं कि ज़माने के धक्कों ने अभी तक उसके अस्तित्व में नकारात्मकता शब्द का उद्घोष नहीं करवा पाये थे। यहीं से सिलसिला शुरू हुआ, जब उसने अपने पिता को खो दिया और अब उनके पेंशन का थोड़ा अंश उसकी मां के नाम हस्तांतरित होना था। पिता की मृत्यु के एक महीने बाद, जब घर से सभी लोग जा चुके थे, पप्पू कोषागार कार्यालय में एक प्रार्थना पत्र और मृत्यु प्रमाण पत्र लेकर पहुँचा। सम्बंधित लिपिक महाशय ने बहुत ही अच्छे तरीके से उससे बात की और खेद जाहिर करते हुए सहानुभूति भी जताया। तत्पश्चात आगे की कार्यवाही के लिए एक हफ्ते बाद फिर बुलाया। हालाँकि पप्पू उस समय दसवीं कक्षा में प्रवेश किया था फिर भी घर के हालात के मद्देनजर उसे विद्यालय की परवाह किये बिना कचहरी के चक्कर काटने पड़े। इस बार लिपिक महाशय छुट्टी पर थे और दूसरा कोई इस बारे में कुछ बोल नहीं पाया। ऐसे करते करते करीब डेढ़ महीने बाद पप्पू को बताया गया कि गांव के लेखपाल से एक प्रमाण पत्र चाहिए की उसके पिता के परिवार में उनके कितने लड़के-लड़कियां हैं और उन सभी लोगों से यह भी लिखवाना है की पिता की मृत्यु के बाद उनकी विधवा के लिए जो पेंशन बनेगी उसमें से किसी को कोई हिस्सा नहीं चाहिए।
लेखपाल उस समय तहसील में बैठते थे और चूँकि उनको गांव भ्रमण भी करना होता था उनसे मिलना अपने आप में एक दुरूह कार्य हुआ करता था। खैर, कई बार भोजूबीर के तहसील में जाने के बाद उनसे मुलाक़ात हुई और पहले ही बार में पप्पू को पांच रुपये चाय पानी के लिए खर्च करना पड़ा, पर उसे बिश्वास था की यह पैसा जाया नहीं जायेगा। लेकिन उस फ़ोन-और-मोबाइल-विहीन काल में किसी सरकारी महकमे में एक कर्मचारी से मिलना इतना आसान नहीं था। बस, आप चक्कर काटते रहिए और मिलन की तारीख़ प्रभु की इच्छा पर छोड़ दीजिये। इसी सिद्धांत के तहत, पप्पू हफ्ते में २-३ दिन साईकिल से कभी तहसील, कभी कोषागार, कभी लेखपाल के घर के चक्कर काटता रहा। समय-समय पर उस छोटे बच्चे से भी लोगों ने रिश्वत की मांग की जिसे उसने बहुत ही शिद्दत से अंजाम दिया। भले ही घर में माँ के पास पैसे नहीं थे लेकिन अपने पप्पू पर इतना बिश्वास था कि यह ज़रूर एक दिन पेंशन बनवा देगा और इसी वजह से थोड़ा ही सही पर इन मांगों को पूरा करती गयीं। ख़ैर, लेखपाल साहब से अंततः ७ महीने के बाद प्रमाण पत्र मिला। चूँकि अधिकतर भाई-बहन शहर से दूर रहते थे, सभी लोगों से डाक द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र मंगाया गया। वह भी अलग-अलग नहीं चलेगा, एक ही पेज पर सबका हस्ताक्षर चाहिए। इसलिए वह कागज़ देश के कई शहरों से होता हुआ बनारस पहुंचा था जिसमे करीब ४ महीने का समय लगा। अब भी काम पूरा नहीं हुआ, इस अनापत्ति पत्र को एक राजपत्रित अधिकारी से फिर से प्रमाणित करवाना था। अब एक गरीब और लाचार परिवार के लिए यह भी एक पहाड़ सा काम था। किसी ने सुझाया कि उनके परिचय के एक वकील साहब चुंगी कचहरी के किसी अधिकारी से यह काम करवा देंगे। पप्पू बहुत खुश हुआ और उनके साथ जाकर वकील साहब को हस्ताक्षरित कागज़ दे आया, इस आशा के साथ की बस काम हो गया। लेकिन लगभग ३ महीने दौड़ने के बाद वकील साहब ने बताया की आपका कागज़ तो चुंगी कचहरी में अधिकारी साहब के कार्यालय से गायब हो गया। इस गैरज़िम्मेदाराना वाक़ये ने पप्पू को फिर से वहीँ ला खड़ा किया। घर की माली हालत और फिर से हस्ताक्षर के लिए ४ महीने और, किसी ने सुझाया की सभी तो राज़ी थे तो क्यों ना हम सब मिलकर अलग -अलग हस्ताक्षर कर दें। वकील साहब ने वादा किया कि इस बार वह प्रमाणित करवा देंगे लेकिन ३०० रूपये लगेंगे और उन्होंने इसके एवज़ में बख़ूबी जिम्मेदारी निभाई। अब सब प्रमाण पत्र लेकर पप्पू ने कोषागार कार्यालय में जमा कर दिए। समय बीतता गया और वही आज नहीं कल आना लगा रहा। लगभग एक साल से ज्यादा हो गए पर अभी तक पेंशन दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही थी।
उसी समय एक परिचित ने कहा की उनका परिचय कोषागार कार्यालय में हैं उन्होंने कहा है कि काम हो जायेगा। उस दिन पप्पू माँ और उस परिचित के साथ कार्यालय पहुंचा और आश्चर्यचकित होकर देखा की कैसे सभी कर्मचारी उसके काम को इतनी तत्परता से अंजाम दे रहे हैं। उसके अंदर का विश्वास और दृढ़ हो गया की सब लोग उसके बारे में सोच रहे हैं और उसकी तकलीफ को समझते हैं। उस हफ्ते सब काम हो गया और अंततः पप्पू की माँ का पेंशन उनके हाथ में आ गया। लेकिन यह क्या माँ का पेंशन ३२६ रुपये (महंगाई भत्ता लेते हुए) है तो पिछले इतने महीने के हिसाब से तो ज्यादा होना चाहिए, पप्पू ने परिचित से यह सवाल पूछा। परिचित ने कहा, ''अरे पप्पू , तुम क्या समझ रहे थे की वह लोग ऐसे ही इतनी तत्परता से काम कर रहे थे? असल में जितना पैसा मिला था उसका बीस प्रतिशत उन्हें देना पड़ा और यही बात वे तुमसे नहीं कह पा रहे थे।" पप्पू ने इस बात को समझा और जब माँ के साथ हर महीने कोषागार जाने लगा तो उसे पता चला कि उसके परिचित सच बोल रहे थे।
यह कहानी करीब ४० साल पुरानी है, पप्पू की माँ इस दुनिया में नहीं रहीं पर वह जिन्दा है। लेकिन यह लगभग डेढ़ साल का समय उसके जेहन में आज भी किसी शूल की तरह चुभता है, जब उसके अबोध मन और मस्तिष्क को सरकारी तंत्र ने इस तरह छला था। वह ऐसे कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों को हमेशा शक की निगाह से देखता है और उन्हें मानवता का गुनहगार समझता है। जो गरीब, लाचार, अबोध बच्चे को भी अपनी निर्दयी इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं छोड़ते।
वह सोचता है कि आज देश में न जाने कितने ही उसके जैसे पप्पू उल्लिखित कहानी से एकाकार हो रहे होंगे और अपने मन में इस समाज, देश और दुनिया के प्रति एक अलग विचार बना रहे होंगे। इन सभी पप्पुओं की यह विचारमला कहीं न कहीं एक अविश्वासी और द्वेषपूर्ण वयस्क तैयार कर रही होगी। हालांकि, खुद पप्पू ने आत्म विश्लेषण करके और अपने को इस विचारमला से ऊपर उठाकर एक ऐसे व्यक्तिव को तैयार किया है जिसका एक मात्रा प्रयोजन है कि उसकी कहानी किसी और के साथ नहीं दुहरायी जाए।
Industry, Academia and Innovation Mindset
Industry-Academia mutual research mindset has been one of the major needs for churning the wheel of innovation, product development and commercialisation thereof. However, a dichotomy exists between these two entities i.e. for one the driving force is economic gain and the other is driven mostly by scientific exploration and laboratory scale technologies which mostly depend upon public funds. Both are satisfied if they can achieve the locally desired outcomes in short-term i.e. profit, career advancement, publications, patents etc. in a short term. Whereas, innovation driven national growth can be achieved only when these two join hands for a single goal of national development instead of pursuing their own separate goals. After all, even two competing teams come together if they are given a bigger goal of a third common cause.
Industries have money at disposal and academia possess scientific expertise and infrastructure for research. However, in absence of sharing of industrial issues and the lack of a mid/long term perspective on new market for disruptive product technologies, these two entities do not find a common goal.
A required industrial mindset for encouraging and supporting research and innovation can be seen from the following story:
“𝘈𝘴 𝘳𝘦𝘴𝘦𝘢𝘳𝘤𝘩𝘦𝘳 𝘫𝘰𝘪𝘯𝘴 𝘢𝘯 𝘶𝘯𝘪𝘷𝘦𝘳𝘴𝘪𝘵𝘺 𝘶𝘯𝘥𝘦𝘳 𝘢 𝘭𝘪𝘮𝘪𝘵𝘦𝘥 𝘵𝘦𝘯𝘶𝘳𝘦 𝘧𝘦𝘭𝘭𝘰𝘸𝘴𝘩𝘪𝘱. 𝘐𝘯 𝘢𝘣𝘴𝘦𝘯𝘤𝘦 𝘰𝘧 𝘵𝘩𝘦 𝘧𝘶𝘯𝘥 𝘪𝘯 𝘵𝘩𝘦 𝘶𝘯𝘪𝘷𝘦𝘳𝘴𝘪𝘵𝘺 𝘧𝘰𝘳 𝘣𝘶𝘺𝘪𝘯𝘨 𝘤𝘰𝘴𝘵𝘭𝘺 𝘳𝘢𝘸 𝘮𝘢𝘵𝘦𝘳𝘪𝘢𝘭𝘴, 𝘩𝘦 𝘸𝘢𝘴 𝘢𝘴𝘬𝘦𝘥 𝘣𝘺 𝘵𝘩𝘦 𝘩𝘰𝘴𝘵 𝘱𝘳𝘰𝘧𝘦𝘴𝘴𝘰𝘳 𝘵𝘰 𝘮𝘢𝘬𝘦 𝘢 𝘱𝘳𝘦𝘴𝘦𝘯𝘵𝘢𝘵𝘪𝘰𝘯 𝘰𝘧 𝘵𝘩𝘦 𝘱𝘳𝘰𝘱𝘰𝘴𝘢𝘭 𝘣𝘦𝘧𝘰𝘳𝘦 𝘵𝘩𝘦 𝘊𝘌𝘖 𝘰𝘧 𝘢 𝘤𝘰𝘮𝘱𝘢𝘯𝘺 𝘸𝘪𝘵𝘩 𝘱𝘳𝘰𝘥𝘶𝘤𝘵 𝘱𝘰𝘳𝘵𝘧𝘰𝘭𝘪𝘰 𝘴𝘪𝘮𝘪𝘭𝘢𝘳 𝘵𝘰 𝘵𝘩𝘦 𝘳𝘦𝘴𝘦𝘢𝘳𝘤𝘩 𝘢𝘳𝘦𝘢 𝘱𝘳𝘰𝘱𝘰𝘴𝘦𝘥. 𝘈𝘧𝘵𝘦𝘳 𝘩𝘢𝘭𝘧 𝘢𝘯 𝘩𝘰𝘶𝘳 𝘰𝘧 𝘱𝘳𝘦𝘴𝘦𝘯𝘵𝘢𝘵𝘪𝘰𝘯, 𝘵𝘩𝘦 𝘊𝘌𝘖 𝘢𝘱𝘱𝘳𝘦𝘤𝘪𝘢𝘵𝘦𝘥 𝘵𝘩𝘦 𝘧𝘶𝘯𝘥𝘢𝘮𝘦𝘯𝘵𝘢𝘭 𝘢𝘴𝘱𝘦𝘤𝘵𝘴 𝘰𝘧 𝘵𝘩𝘦 𝘱𝘳𝘰𝘱𝘰𝘴𝘦𝘥 𝘸𝘰𝘳𝘬 𝘸𝘪𝘵𝘩 𝘢𝘯 𝘰𝘱𝘪𝘯𝘪𝘰𝘯 𝘵𝘩𝘢𝘵 𝘪𝘵 𝘸𝘰𝘶𝘭𝘥 𝘨𝘪𝘷𝘦 𝘢 𝘨𝘰𝘰𝘥 𝘶𝘯𝘥𝘦𝘳𝘴𝘵𝘢𝘯𝘥𝘪𝘯𝘨 of 𝘵𝘩𝘦 𝘯𝘦𝘸 𝘮𝘢𝘵𝘦𝘳𝘪𝘢𝘭𝘴 𝘧𝘰𝘳 𝘵𝘩𝘦𝘮 𝘵𝘰𝘰. 𝘈𝘧𝘵𝘦𝘳𝘸𝘢𝘳𝘥𝘴, 𝘵𝘩𝘦 𝘊𝘌𝘖 𝘴𝘢𝘪𝘥 𝘵𝘩𝘢𝘵 𝘢𝘭𝘵𝘩𝘰𝘶𝘨𝘩 𝘵𝘩𝘦 𝘤𝘰𝘮𝘱𝘢𝘯𝘺 𝘸𝘰𝘶𝘭𝘥 𝘯𝘰𝘵 𝘵𝘢𝘬𝘦 𝘶𝘱 𝘱𝘳𝘰𝘥𝘶𝘤𝘵𝘪𝘰𝘯 𝘰𝘧 𝘢𝘯𝘺 𝘴𝘶𝘤𝘩 𝘮𝘢𝘵𝘦𝘳𝘪𝘢𝘭𝘴 𝘪𝘯 𝘧𝘶𝘵𝘶𝘳𝘦 𝘣𝘶𝘵 𝘪𝘵 𝘸𝘰𝘶𝘭𝘥 𝘥𝘦𝘧𝘪𝘯𝘪𝘵𝘦𝘭𝘺 𝘦𝘹𝘵𝘦𝘯𝘥 𝘢𝘭𝘭 𝘵𝘩𝘦 𝘴𝘶𝘱𝘱𝘰𝘳𝘵 𝘧𝘰𝘳 𝘵𝘩𝘪𝘴 𝘸𝘰𝘳𝘬. 𝘏𝘦 𝘢𝘴𝘴𝘶𝘳𝘦𝘥 𝘵𝘰 𝘴𝘶𝘱𝘱𝘭𝘺 𝘢𝘭𝘭 𝘵𝘩𝘦 𝘳𝘢𝘸 𝘮𝘢𝘵𝘦𝘳𝘪𝘢𝘭𝘴 𝘯𝘦𝘦𝘥𝘦𝘥 𝘢𝘯𝘥 𝘨𝘰𝘵 𝘪𝘵 𝘥𝘦𝘭𝘪𝘷𝘦𝘳𝘦𝘥 𝘵𝘰 𝘵𝘩𝘦 𝘶𝘯𝘪𝘷𝘦𝘳𝘴𝘪𝘵𝘺 𝘸𝘪𝘵𝘩 𝘢 𝘯𝘰𝘵𝘦 𝘵𝘰 𝘴𝘶𝘱𝘱𝘭𝘺 𝘮𝘰𝘳𝘦 𝘪𝘧 𝘯𝘦𝘦𝘥 𝘢𝘳𝘪𝘴𝘦.”
This mindset was indeed an eye opener for the researcher which he had never seen in his research career till that day.
Management, Control and Leadership
Managing life tantrums, an organisation or our social group is one of the most talked about subjects. However, it is difficult for many of us to understand whether we need to manage, control or lead, particularly in absence of good comprehension of the outcomes. Managing and controlling are sometimes synonymous where efficiency, performance, productivity, profit and exclusiveness are the prime movers and are prioritized. In addition, dissent from the team, due to overly restrictive circumstances, and their personal disposition is generally frowned upon, which leads to a situation akin to a vicious circle and stifles innovations and creativity, along with improper communication among the stakeholders – Controlled and Managed do not experiment, will never take the ownership of their workplace, will be demotivated and frustrated.
However, an organisation flourishes when it has motivated workforce at all levels and it leverages the dormant personal skills, experience, creativity and most important the loyalty of its employees, which can be possible if the organisation sets up an environment to motivate the workforce to take the ownership of the organisational goal. Although it is commonly well understood but the people at the top of the echelon generally fail and struggle to command a trust in employees and rely on their authority, instead of inspiring and empowering the workforce to take the ownership of the goals, for compliance rather than genuine commitment.
The neglect of human factors, on the part of management or organisational leadership, that drive individual’s personal or professional behaviour, lies in the centre of the issue that leads to a dichotomous situation i.e. well managed/controlled but with unintended consequences and poor organisational performance.
Therefore, an organisations should focus on empowerment rather than control, emphasize on team over individual, practice flexibility in dealing with employees and prioritize the well being of and engagement with the employees. At the same time, individual stakeholders should follow: Selfless care of your colleagues and transferring the ownership to them too will surely lead to your success, particularly brought to you by them.
JUST PUNCTUATE AND REFINE, LET THE WORDS ALIGN TO MAKE THE SENTENCE FOR YOU.
Circle of Goodness
Attached picture is self explanatory ‘Circle of goodness’ and entails our psychological journey through life. We are the outcomes of our genetic evolution through the millennia. However, our genes are also affected by our environment. Once ready to interact with the outside world, we imbibe so much from the environment and learn to respond to the environmental stimuli based on our disposition i.e. virtues and habits we develop during our physical and mental growth. The interaction with the environment help us evolve and determine our likes and dislikes. We find it easy and joyful to do what we like and can further strengthen this liking by doing it uninterruptedly (HABITS developed). What if our liking, i.e. what we enjoy doing, is not good for us, the family, the society, the nation and the environment (particularly when all of us start enjoying that act) in the long run.
There may be myriad logical/illogical arguments on what we love doing is right but only those acts are right which helps us develop as a society/nation sustainably and with vibrant and happy people. Therefore, we need to calibrate ourselves (by our FREE WILL or WILL TO DO GOOD) such that we develop a habit of doing the thing that is RIGHT, but we do not like doing it. The continuous practice of RIGHT act and thought (though we face mental resistance as we do not like doing it) brings it in our habit. It is definitely very DIFFICULT proposition in presence of an already cemented habit.
It’s all the play of our brain, our interpretation of the stimuli from the environment, our logic in favour of our survival or ego satisfaction and keeping ourselves joyful, so on and so forth. But at the end we want to survive in a healthy environment/society which gives minimal pain to our physical and mental being.
THIS IS VERY IMPORTANT FOR OUR YOUTH WHO ARE THE TORCH BEARERS FOR THE GENERATIONS TO COME.
Children understand only EMOTION and LOVE
Look at the faces of parents the moment they see their just born baby. Their jubilant faces are the reflection of an intrinsic happiness somewhere deep inside. With the birth they get a new responsibility for proper upbringing and making the child an additional asset to the evolution of mankind i.e. giving them philosophy of life, relevant education, responsibility towards society, towards family and going ahead with fulfilling further responsibilities to advance the cause of continual existence of mankind.
With time, the child learns to crawl, walk, talk, socialize and enters into school i.e. interacting with the outer world. The initial development is under the shadow of parents, family and is within a closed society. In the whole developmental process, child’s interaction with the family members and the society molds its temperament. These outer influences on child's psychology govern their behaviour with / response to the family members or external environment. In turn, a child's behaviour again determines how his/her environment (family and society) will respond to him/her. The family and the society within their limited knowledge and understanding of the psychological influences and responses, thus, further molds the child's behaviour.
With these psychological make up, children enter their teen age where they undergo an intrinsic changes that prepare them to become an adult. In the teenage, psychological, analytical, emotional and financial maturity develops that entails decision making, differentiating right from wrong, psychological responses to the surroundings, decisions on possible career options for further livelihood, coping with physiological changes, so on and so forth. However, such a big responsibility on these children comes in absence of a large amount of statistical experiences that puts them in confusion and indecisiveness, which in turn make the life of a teenager much more difficult compared to their younger or adult counterparts. Therefore, such an age need to be mentored with love and care.
Parents also face a relatively similar situation, mostly governed by the thought of seeing their children better off compared to their present situation. This remains in their back of mind, particularly during their child's teenage, when they interact with the child and respond to them from the perspective of a fearfulness. This aggravates the issue and sometimes does not result in what the society or the family wants to happen.
Therefore, it is important to understand that the foundation we give to our children in their childhood and teenage should be governed not by the parents' thought process and their fear of the future of the child but just love and treating them as an individual with full emotion, as at this tender age they do not have the ability to develop an interrelationship among the social/practical aspects of life. THEY JUST UNDERSTAND EMOTION and LOVE.
Look at the face of a father the moment he sees the face of his children just born. The jubilant face becomes the reflection of his intrinsic happiness he feels inside him. He starts looking for the avenues on how to bring comfort to his newly born child in whatever way he could. This is a feeling of the fact that now the child is his responsibility for proper upbringing and readying him to bring an additional asset to the evolution of mankind i.e. giving him philosophy of life, relevant education, responsibility towards society, towards family and going ahead with fulfilling further responsibilities to advance the cause of continual existence of mankind.
In the process of the growth of the child, the child learns to walk, speak, talk, socialize and slowly enters into school, starts learning process and interacting with the outer world. This leads to the child's all round development under the shadow of parents, family and the society. In the whole developmental process, the life experiences of parents, which also controls their behaviour with the child within the given circumstances, the family members, the outer influences of the society and their interaction with the child, all mold the child's temperament. These influences on child's psychology during growth also govern their behaviour with / response to the family or external environment. In turn, a child's behaviour again determines how his/her environment (family and society) will respond to him/her. The family and the society within their limited knowledge and understanding of the psychological influences and responses thus further mold the child's behaviour.
Having been influenced by such interactions throughout the childhood, children enter their teen age where they undergo a very different intrinsic changes that prepares them to become adult. In the teen age, a child has to behave as adult if he/she has to become a perfect adult and this entails decision making, differentiating right from wrong, financial understanding and decisions, psychological responses to the environment, decisions on possible career options for further livelihood, coping with physiological changes, so on and so forth. However, such a big responsibility on these children comes in absence of a large amount of statistical experiences and this make them fully confused and indecisive, which in turn make the life of a teenager much more difficult compared to their younger or adult counterparts. Such an age need to be mentored in a proper manner with love and care.
Having understood a bit about the growth of a child and difficulty of being in teens, parents also face a relatively similar situation mostly governed by the thought of seeing their children better off compared to their present situation at home. This thought always remains in the parents' consciousness and much of their interactions with the growing child, particularly during their teenage, entails the responses from the perspectives of the fearfulness. This further aggravtes the issue and sometimes does not result in what the society or the family wants to happen.
Therefore, it is important to understand that the foundation we make for our children in their childhood should be governed not by the parents' thought process and their fear of the future of the child but just love and treating them as an individual with full emotion, as at this tender age they do not have the ability to develop an interrelationship among the social/practical aspects of life. THEY JUST UNDERSTAND EMOTION.
बात करीब ३६-३७ साल पुरानी है। मैं उस समय ६-७ साल का था। बनारस के एक छोटे से गांव में अपने माता-पिता के साथ रहता था। गांव के बच्चों के साथ खेलता था। एक छोटा बच्चा बस अपनी इच्छाओं की पूर्ति और माता-पिता के प्यार की इच्छा रखते हुए बड़ा हो रहा था। उसको छुआछूत, जाति, धर्म इत्यादि से कोई लेना देना नहीं था। एक बार मैं कुछ बच्चों साथ घर के बाहर खेल रहा था। तभी आस पास के वयस्क और बड़े लोग एक साथ चिल्लाना शुरू किये,"भागो बच्चों! वो आ रहा है और तुम सभी को बोरे में बंद करके ले जायेगा"। हम बच्चों को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन चूँकि बड़ों ने कहा है तो बात माननी ही पड़ेगी। अतः हम सभी अपने-अपने घरों में दुबक गए। लेकिन मन की उत्कंठा को शांत करने के लिए छिप कर बाहर देखने लगे कि आखिर वह कौन है जिससे हम सभी को इतना डर है। तब पता चला की वह एक हमारे जैसा ही आदमी है और उसका रंग थोड़ा सांवला है। उसके हाथ में एक पतली लकड़ी का डंडा और पीठ पर एक खाली बोरा जो उसने अपने दाहिने हाथ से कंधे के ऊपर से पकड़ा था। मुझे समझ में नहीं आया कि इनसे डरने की क्या बात है। लेकिन बच्चे उत्सुकतावश उस आदमी से दूरी बनाये हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगे। साथ में बड़ों की आवाज़ सुनाई दे रही थी, "उसके पास मत जाओ, उसको छूना मत"। हमने देखा कि वह आदमी तालाब के किनारे दलदल में अपने डंडे से कोंचता और कभी कभी एक मेंढक पकड़ कर अपने पीछे बोरे में डाल लेता। ऐसा करते-करते थोड़ी देर बाद वह चला गया। बाद में कुछ बड़े लोगों को उनके बच्चों को समझाते सुना कि वह मुसहर जाति का था और उसको छूने से पाप लगता है। जब जब यह घटना याद आती है तो सोचता हूँ कि उस दिन उस हमारे जैसे सांवले व्यक्ति पर क्या गुजरी होगी। मैं तो बस उस एक दिन को सोचकर दहल जाता हूँ, जिस व्यक्ति को हर डगर पर ऐसी मानसिक प्रताड़ना मिले वह उस ज़माने में कैसे अपना जीवन जीता रहा होगा।
इतने साल गुजरने के बाद आज, जमशेदपुर जैसे शहर में, फिर ऑफिस के बाहर चाय पीते हुए किसी पांडेय नामक व्यक्ति को, जो देखने और पहनने में एक तथाकथित संभ्रांत परिवार से लगते थे, किसी से कहते सुना, " अरे यार! उसकी क्या बिसात, हम ब्राह्मण हैं और आज भी हम उसके हाथ का छुआ पानी नहीं पीते"। उनकी इस बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि, अभी के परिवेश और दशाओं को ध्यान में रखते हुए, हमारे देश और समाज को मानसिक रूप परिपक्व होने में सालों लगेंगे। मुझे लगता है कि आज देश को आर्थिक और सामरिक विकास से कहीं ज्यादा मानसिक विकास और कर्तव्य बोध कि जरूरत है।
किसी देश की व्यवस्था और राजनीतिक परिदृश्य, उस देश के नागरिकों की वृहद् तौर पर सोच को दर्शाती है। इस नज़रिए से, आज के अखबार, दूरदर्शन और दूसरे समाचार माध्यमों से परिलक्षित होता है कि कहीं न कहीं हमारे देश की जनता ही देश की वर्तमान स्थिति की ज़िम्मेदार है। जबकि जनता रोती है कि हम क्या कर सकते है, हमारे हाथ में क्या है, करने वाले तो सरकारी महकमें के लोग और हमारे चुनें हुए माननीय लोग हैं, जो हमारी ज़रूरतों और व्यथाओं को देश के सर्वोच्च पटल पर रखते हैं और हमें अनुगृहित करते हैं। लेकिन कभी भी हम यह नहीं कहते या सोचते कि देश की दी हुई व्यवस्था अपने आप में इतनी सुदृढ़ है कि उसके पालन मात्र से ही बहुत कुछ ठीक हो जायेगा। कुछ तो ऐसा है जो हमें इस दिशा में न सोचने के लिए मजबूर करता है और हम सोचते भी हैं तो शायद व्यवस्था पालन के दौरान ज़िन्दगी की दौड़ में कहीं पीछे छूट जाने का डर रहता है। लेकिन हम अपनी इस डर की वजह से अपनी ही व्यवस्था और अपने ही देशवासियों के लिए कैसा माहौल खड़ा करते हैं इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं। अगर हम ध्यान दें तो पायेंगे कि हर देशवासी कुछ सामाजिक व्यथाओं से रूबरू हो रहा है और वह बस आह भरकर आगे बढ़ता जा रहा है, अपने को एक स्वच्छ समाज देने में असमर्थ पा रहा है। आख़िर ऐसा क्यों है कि जहाँ हम अपने ऊपर राज करने के लिए लोकतांत्रिक रूप से अधिकारी हैं वहीं हम समाज में डरे सहमें रहते हैं। क्या कमी है हममें जो अपने ही राज में डरना पड़ रहा है। यहाँ मैं आम नागरिक के कुछ आम व्यथाओं का सांकेतिक उल्लेख करता हूँ।
१) बाहुबलियों के निर्बल कार्यकर्ता भी शह पाकर इतने सबल हो गये हैं कि गली मोहल्लों की जनता डर में जी रही है, क्या हमें यही लोकतांत्रिक अधिकार प्रदत्त है?
२) हमनें जिसे अपनी रक्षा के लिए रखा, वह हमारे सहनशक्ति का मखौल उड़ाते हुए आजकल हमारे ही प्रताड़नादायकों की रक्षा में लगा हुआ है।
३) हम उस विचार से व्यथित हैं जिसके तहत तेज़ रफ़्तार चालकों को दण्ड देने के बजाय हम सड़क पर रफ़्तार तोड़क बनाने में विश्वास रखते हैं।
४) हम उन बड़े बुज़ुर्गों में सम्भावना तलाशते रहे जिन्होंने किसी उम्र के पड़ाव पर ज़िन्दगी के मायने समझ लिए, पर वह तो ख़ुद ही अपने बच्चों में अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरा करने की तमन्ना जगाए मिले। और इसके लिए कोई भी हथकण्डे अपनाने की सीख देते मिले।
५) हम व्यथित हैं कि जिस स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा के ज़रिए देश की प्रगति निर्धारित होती है, उसी पर आज हम सबसे कम ध्यान देते हैं। हमनें ऐसा क्यों कर दिया कि हमारे नौनिहालों को अच्छी शिक्षा देने के लिए क़ाबिल लोग नहीं मिल रहे हैं।
६) यह सर्वविदित है कि साधारण मनुष्य की हर क्रिया उसके प्रकृति प्रदत्त मनोवैज्ञानिक स्तर से संचालित होती है। वह वही सपने संजोता है जिससे उसे वैभव और प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो। अगर किसी देश को अपनी जनता को सच्ची शिक्षा प्रदान करने की ललक हो तो इस कारण से उसे वह सभी कुछ करना चाहिए जिससे की शिक्षक की समाज में प्रतिष्ठा बढ़े। आज के समाज, जहाँ किसी की सामाजिक प्रतिष्ठा चरित्र और ज्ञान पर निर्भर नहीं है, में पुरातात्विक ऋषि शिक्षक ढूँढना या वैभवजनित बाज़ार में शिक्षक को बाज़ार से अलग रहने का संदेश देना बेमानी है। इसलिए, या तो कोरे बाजार से समाज को दूर रखें या फिर बाज़ार रूपी समाज में शिक्षक की प्रतिष्ठा बढ़ाने की ओर कार्य करें।
७) यातायात के दौरान कोई छोटी या बड़ी दुर्घटना हो जाने पर सही या ग़लत का फ़ैसला भीड़ के हवाले हो गयी है और भीड़ की विवेकशीलता सर्वविदित है। दुर्घटना में जो ज़्यादा प्रभावि या जो ज़्यादा दमदार दिखा भीड़ उसी की तरफ़ हो जाती है, भले ही वही यातायात नियमों का अनुपालन करने में कोताही बरता हो। यह तरीक़ा अनुशासित व्यक्ति के मुँह पर करारा तमाचा है जो हमें नहीं होने देना चाहिए। मैं उसी भीड़ से पूछना चाहूँगा कि दुर्घटना के कारक, अर्थात सड़क पर यातायात अनुशासनहीनता, दिखने पर वह चुप क्यों होते हैं।
८) हम बात करते हैं उन लोगों कि जिनके पास घोषित इनकम से कहीं ज़्यादा या अकूत सम्पत्ति है। सरकारें यह साबित करने में अपने को असमर्थ पा रहीं हैं, जबकि एक साधारण मनुष्य को कुछ ख़ास लोगों के पास यह आसानी से दिख जाता है क्योंकि वह जानता है कि फ़लाँ आदमी कौन है, क्या करता है और उसके उस काम से वह कितना कमा सकता है। बस्तियों से निकलने वाले SUVs, BPL कार्ड धारकर बच्चों का SUV से स्कूल आना, बड़े-बड़े घरों के आगे निठलले लोगों का जमावड़ा, इनसे समाज में एक डर व्याप्त होना इत्यादि इत्यादि इसके परिचायक हैं। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसे लोगों के ऊपर सरकारी महकमें की सवसंज्ञान लेने की कोई प्रथा नहीं है। क्या हम कभी इस तरह के लोगों से पार पाएँगे।
कहते हैं कि किसी समाज का चरित्र या गुण समय के साथ बदलता है और किसी एक दिशा में बढ़ता या घटता है। लेकिन जमशेदपुर में एक अलग ही संयोग देखने को मिल रहा है। यहाँ सामाजिक सहनशीलता और असहनशीलता एक साथ बढ़ती हुई नज़र आ रही है।
यहाँ सहनशीलता चरम पर दिखती है जब:
- बीच सड़क पर एसयूवी खड़ी कर बात करते हैं और हम अपना रास्ता ढूँढ़ने लगते हैं।
- तीन सवारी बैठाकर मोटरसाइकिल वाला हाॅरन देते हुए तेज़ी से निकलते हुए भले ही जनता के लिए काल हो पर हम अपने आप को बचाने के रास्ते ढूँढते हैं।
- धुँआँ उगलती गाड़ियाँ मुँह पर धुँआँ छोड़कर चली जाती हैं और हम हाथों से अपने लिए आकसीजन की व्यवस्था करते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
- छुटभैए गुंडे सरेआम समाज को धता बताते हुए अपनी मनमर्ज़ी करते हैं और हम सहमें हुए अपनी सहनशीलता का परिचय देते हैं।
यह सब हमारी नाकाम व्यवस्था की वजह से हो सकता है जिस पर हम अकेले लगाम नहीं लगा सकते। लेकिन इसी के साथ हम अपने दम पर कुछ कर गुज़रने की क्षमता रखते हैं अपनी असहनशीलता का परिचय भी देते हैं जब:
- कार पर हल्का निशान लग जाने से हम मार पीट पर उतारू हो जाते हैं और सामने वाले को उसकी जगह दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं।
- मोटरसाइकिल वाले लाख ग़लत चलाते हों लेकिन दुर्घटना के बाद बड़ी गाड़ी वाले की पिटाई भी होगी और मुआवज़े के लिए चक्का भी जाम करेंगे।
- सड़क पर चाहे कितना भी जाम लगा हो हमें इतनी जल्दी होती है कि हम हाॅरन पर से हाथ ही नहीं खींच पाते।
- भले ही हम अगले पान की दुकान पर जाकर बस गप्प ही मारेंगे लेकिन वहाँ तक जाएँगे ८०-१०० किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से।
इन दो विपरीत गुणों के पीछे एक सच है "मैं और मेरी इच्छा"। जहाँ हमारे ऊपर परतयक्ष असर पड़ता है हम असहनशील हैं, और जहाँ अपरतयक्ष दूरगामी सामाजिक असर हो सकता है हम बहुत ही सहनशील है।
अगर इस प्रकार की सहनशीलता जल्द असहनशीलता में तब्दील नहीं हुई तो समाज पर इसका दूरगामी असर होगा।
शासन, वह भी सुशासन !!!! एक लोकतांत्रिक सुशासन में सरकार की हमेशा यह कोशिश रहती है कि देश के नागरिक एक सहूलियत भरी जिंदगी बसर करें। लेकिन कुछ कारणों वस देश की जनता अपने ही तथाकथित नुमाइंदों के हाथों या फिर उनके ही जैसे फेहरिस्त वालों के हाथों ठगी जाती हुई प्रतीत होती है। हमारे देश में हजारों कानून होने के बावजूद भी यह हालात हैं कि नियम और कानून का उल्लंघन करने वालों या कहें कि 'बिन पेंदी के लोटों' के लिए जिंदगी ज्यादा सहूलियत भरी है और वह सभी जो अपने जीवन में देश और समाज के प्रति जबाबदेही को ध्यान में रखते हुए अपने आपको कुछ सिध्दांतो से बाँध लेते हैं, और उससे टस से मस नहीं होते, उनका जीवन का हर पल भारी जद्दोजहद से परिपूर्ण होता है।
इसलिए मुझे ऐसा महसूस होता है कि किसी भी सरकार के कार्यकाल को सुशासन तभी माना जाना चाहिए जब उसके शासनकाल में नियम और क़ानून मानने वालों की जिंदगी व्यक्तिगत, भावनात्मक, सामाजिक और आर्थिक रूप से सरल बनती है। हर मनुष्य जीवन का सरलीकरण चाहता है और यही नहीं मिलने पर वह येन केन प्रकारेण किसी सरल रास्ते (अर्थात भ्रस्टाचार, नियम उल्लंघन इत्यादि) की ओर रुख करता है जिससे उसकी जद्दोजहद कम हो सके। जब तक समाज और देश में धन और विलास पूजनीय होगा तब तक किसी भी तरह का नया प्रादुर्भाव अकल्पनीय है।
इसका एक समाधान जो नज़र आता है वह है "शासन को अविश्वास से अधिक विश्वास पर आधारित होना चाहिए"
Can a feudal society be a part of a truly democratic system?? I think these are based on opposite principles.
A person is always a slave of the past. His/her knowledge and experience, through interaction and observation, with time gives birth to his/her way of thinking. Therefore, time is the psychological enemy of mankind in achieving the freedon, which is pure observation without direction, without fear of punishment and without aspiration for rewards.
The mankind would be benefitted at large if a case is made to move from 'Materialising the spirituality' to 'Spiritualising the materialism'.
The ultimate aim of a life is to transform from duality of existence to oneness.
It is good to live your dreams. But we should remember that dreams are the outcome of our experience, according to Sigmund Freud. Therefore, dreams need to be analysed too, So as the experience and circumstances. Definitely an esoteric task.
A good teaching gets us the ability to think, question and contemplate. Without this, we will continue to function on autopilot, and allow those in power to continue to dominate, oppress and enslave us in every way.
Learned in childhood that Cinema shows the true mirror image of a society. Off late, I had to correct myself that it was not the Cinema but the people on roads (Read traffic sense) who give clearer image of the society we live in, local or national.
It's strange. Those who want their children to be taught by world class school teachers, supposedly should be possessing all the qualities, do not want their own children to become a teacher. Why??????? There lies the crux of our education system. A positively considered answer to this question is the key how our system should revamp itself. Who is going to bell the cat for this change? Make teaching a profession sought after by brilliant of brilliants and see the change. It is the responsibility of the public to fund themselves, through government, for best quality of schooling at primary and secondary level.
Slightest inclination to test someone or being tested blocks your mind. Best way to learn is to satisfy your curiosity.
'Positive thinking' is not being overconfident and accept everything without raising a question on the success. But it is to look at something extremely negatively, see the worst and at the same time gear up to take up the challenge.
It's rare to find a son with integrity and honesty, who has enjoyed the benefits (wealth and sycophancy) of wrongdoings of power yielding father throughout his life without any opposition to the father's ways. Therefore, people should be held responsible to elect THE FATHER'S SON with thumping majority without giving this fact a consideration.
I understand that the development of a nation as well as the human development index not only depends upon the work of a government but also its citizens who feel responsible to the nation. If we look at the general tendencies in the social circles we will find that we have to be more responsible towards water, sanitation, cleanliness, aforestation, traffic rules, social behaviour, corruption, population growth and so many more. However, the nation at present lacks any mechanism which can be utilised to inculcate this responsibility in people. Therefore, I feel that there should be a social awareness cell within the government which makes or suggests or arranges documentaries related to social responsibilities and makes it mandatory for the television channels to telecast at least 3-4 minutes an hour as their social responsibility. This may help us tremendously if this continues for a few years.
आज हमने अपने परम प्रिय वैज्ञानिक, शिक्षक आैर प्रेरणास्रोत को खो दिया है। हमेशा सोचता था कि ऐसी महान आत्मा और इतनी विनम्रता दोनों एक साथ, ख़ासकर आज के परिवेश में, कैसे आ सकती हैं। इनमें सामंजस्य बैठाने वाला अपनी ज़िन्दगी में अपने अन्दर कितना धैर्य, स्थायितव, साहस, तटस्थता, अनाशक्ति और निडरता का विकास किया होगा। डा॰ कलाम के इन कोशिशों और कर्मों से उसको सिद्ध करने की उपलब्धि को मेरा शतत नमन। भगवान उनकी आत्मा को सदैव शान्ति प्रदान करें।
आज हर मुँह से एक ही बात सुनने को मिलती है, "समाज जाने कौन सी दिशा में जा रहा है"। हममें जो बोया है वही काट रहे हैं और अब जो बीज बोयेंगे १६-१८ साल बाद वही फ़सल काटेंगें। अगर हमें अच्छी फ़सल चाहिए तो हमें अभी से अपने बच्चों के कोमल दिमाग़ में चरित्र रूपी बीज और अच्छी आदतों की खाद डालनी पड़ेगी। अगर बच्चे हमें हमसे प्यारे हैं तो हम ज़रूर उनके लिए आने वाले समय में अच्छे वातावरण की कामना करेंगे। यह बात भी ठीक तरह से समझनी चाहिए कि अच्छा समाज बस तेज़ गणना करने, विद्यालय में अव्वल आने, प्रतियोगिता में सबसे आगे रहने, माँ-पिता का नाम रोशन करने इत्यादि से नहीं बल्कि इन सब के साथ-साथ भावनात्मक और चारित्रिक रूप से परिपक्व होने से बनता है।
शिक्षा से भविष्य की पीढ़ियों का चरित्र निर्माण तभी सम्भव है जब वर्तमान व्यवस्था के चरित्र पूरी तरह बदल जाएँ ।
अधिकतर प्रयोगशाला जाते समय रास्ते में दो तीन स्कूल पड़ते हैं। छोटे छोटे बच्चे सड़क पार करने की कोशिश करते हैं। लेकिन भीड़ भरी सड़क उनको बहुत तकलीफ़ देती है। हर राहगीर जल्दी में होता है। कोई भी बच्चों को पास देने के लिए नहीं रुकता। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने क़रीब २०-२५ लोगों से बात किया और उनका राय लिया। हर शख़्स कहता है कि हमें बच्चों के लिए रुकना चाहिए। लेकिन मैंने अभी तक किसी को रुकते नहीं देखा। ऐसा क्यों है कि कहते सब हैं लेकिन करते बिरले हैं। मुझे लगता है कि जब हम बच्चों को पास देने की इच्छा रखते हैं तो हमें हमारे बच्चे याद रहते हैं। लेकिन जब हम सड़क पर होते हैंतो हम सिर्फ़ अपनी मंज़िल देखते हैं। हम भूल जाते हैं कि सामने वाला बच्चा भी उसके माँ बाप का उतना ही प्यारा है जितना हमारे हमको। यह छोटे बच्चे आज के समाज के उनके प्रति रवैये को देखकर ही भविष्य के समाज की रचना करेंगे। इसलिए सभी बच्चों के साथ आज का हमारा अच्छा व्यवहार कल के लिए एक सुदृढ़ समाज के गढ़ने के समान है।
जब सरकारी कार्यालय, साफटवेर उदयोग और बहुत से संस्थान ५ दिन सप्ताह काम करते हैं, बहुत से स्कूल बोर्ड ५ दिन सप्ताह काम करते हैं तो देश के कुछ बच्चे ६ दिन क्यों स्कूल जायें? क्या हम उनको अपनी जिज्ञासा को पूरी करने और उनकी बाल्य सुलभ क्रियाओं के लिए उनकी ही ज़िन्दगी से समय नहीं दे सकते? सरकार को देश के सभी स्कूलों को ५ दिन सप्ताह कर देना चाहिए । ख़ासकर, कक्षा ८ तक तो होना ही चाहिए ।
पाठशाला में नैतिक शिक्षा, जो प्रायः ख़त्म होती जा रही है, केवल विद्यार्थी को जड़वत अच्छाई और बुराई का भेद बताते हैं । परन्तु चारित्रिक शिक्षा या चरित्र निर्माण, जो मूलतः पारिवारिक परिवेश से आता है, विद्यार्थी को अच्छाई बरक़रार रखने के रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को आत्मसात करना सिखाता है ।आज देश को पैसे से कहीं ज़्यादा अपने युवाओं के चरित्र निर्माण की ज़रूरत है जो हमारे नौनिहालों से शुरु होती है । चरित्र निर्माण से लालसा रहित कर्मठता पैदा होती है जो देश की आर्थिक समृद्धि और मानव मूल्यों की रक्षा में सहायक होगा ।
ग़ुस्सा और हिंसा भय का आवरण है, लालसा रहित स्वच्छन्द और निर्भय जीवन ही समाज कल्याण की ओर हमारा योगदान है ।
एक दसवीं का छात्र एक दिन विद्यालय में अनुपस्थित था और इस वजह से उसे अध्यापक को आवेदन देकर एक दिन की छुट्टी की मांग करनी पड़ी। उसने लिखा की उस दिन ज्यादा देर तक सोने की वजह से देर हो गयी और वह देर से विद्यालय आने के बजाय घर पर ही रहना सही समझा। जब आवेदन प्रधानाचार्य के पास पहुंचा तो उन्हें इस कारण को स्वीकार करने में दुविधा हुई। क्योंकि प्रधानचार्य ने ऐसा कारण कभी देखा ही नहीं या शायद कोई ईमानदारी से लिखा ही नहीं। अतः उन्होंने शिक्षक को कहा जी उस छात्र से बोलिए की यह कारण स्वीकार्य नहीं है इसलिए उसे लिखना पड़ेगा की उसकी तबियत ख़राब हो गयी इसलिए वह नहीं आ सका। छात्र ने ऐसा ही किया और साथ में विद्यालय के प्रधानाचार्य से यह भी सन्देश लिया कि सच्चाई से कही हुई बात हमेशा स्वीकार्य नहीं होती। इस सन्देश के जड़ में क्या है?
एक प्रधानाचार्य जैसे पद की नियुक्ति के समय इस बात का ध्यान रखा जाता है की वह शिक्षित है और विवेकशील है। लेकिन उसको नियमो और शर्तो में इस कदर बाँध दिया जाता है कि वह अपने विवेक का उपयोग न करके उसी ढर्रे पर चलना सीख लेता है जैसा हमेशा से होता आया है। यह दशा अमूमन देश के हर दफ्तर में मौजूद है। क्या छात्र के दिए हुए कारण को स्वीकार करते हुए उसे दोबारा ऐसा न होने की हिदायत देकर छोड़ा नहीं जा सकता था ? कम से कम एक गलत सन्देश जाने से रोक ने के लिए?
जिस देश में बीपीएल के ज़रिए स्कूल में दाखिला लेकर बच्चा सूमो गाड़ी से स्कूल आता हो वहाँ क्या प्रणाली चलती होगी?
जिस समाज की युवा पीढ़ी को बिना श्रम और उपार्जन के धनार्जन की हवस हो जाए, उसका पतन कौन रोक सकता है?
वैसे तो आधिकारिक तौर पर हमारे देश में हर साल करीब १,३१,००० मौतें होती हैं। लेकिन असली आंकड़ा शायद इससे कहीं ज्यादा होगा। अगर किसी और अप्राकृतिक कारणों से होने वाली मौतों को देखें तो सड़क पर होने वाली मौतें कहीं से कम नहीं हैं, जो आज तक किसी बड़े बहस का विषय न बन सकी। क्या इस देश में किसी नामी आदमी के ऊपर असर डालने वाली चीजें ही बहस का मुद्दा बन सकती हैं ? अभी तक इस विषय पर देश भर में बहस क्यों नहीं छिड़ी ? जो भी है, यातायात नियम और उसका अक्षरशः अनुपालन हमारे देश का एक बड़ा मुद्दा ही नहीं है बल्कि इस देश के नागरिकों का सामाजिक व्यवहार भी दर्शाता है।
ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में दुर्घटना की परिभाषा कुछ इस तरह से है "एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना जो आम तौर पर अप्रत्याशित रूप से और अनजाने में होता है और जिसके परिणामस्वरूप नुकसान या चोट पहुंचती है"। लेकिन गौर करने की बात है की अप्रत्याशित रूप से और अनजाने में होने वाली घटना (यानि कि वह जिसके होने की प्रायिकता बहुत कम होती है या फिर उसका पूर्वानुमान नहीं होता) इतने बृहद रूप से हमारे देश में हो रही है और हमें इसकी कोई चिंता ही नहीं होती। इन दुर्घटनाओं की बृहद्ता बताती है की यह अनजाने में होने वाली घटनाएँ नहीं हैं। क्योंकि अनजाने में होने वाली घटनाओं को समय के साथ देश के सजग नागरिक सुधार लेते हैं और उसकी पुनराबृत्ति नहीं होती। लेकिन हमारे यहाँ तो इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसका मतलब कुछ ऐसा है जो इन घटनाओं की प्रायिकता या संभावना को बढ़ा रही है और वह हैं यातायात नियमो का जानबूझकर धड़ल्ले से उल्लंघन। यह उलंघनकर्ता ही दुर्घटनाओं के होने की संभावना को बढाते हैं और नियमो के अनुपालकों का भी जान जोखिम में डालते हैं। इसलिए जानबूझकर दुर्घनाओं की संभावना बढ़ाने वाले बस एक दुर्घटना के जिम्मेदार नहीं बल्कि मौत के जिम्मेदार हैं और इनको किसी के हत्या का आरोपी मानना चाहिए।
पाठशाला में नैतिक शिक्षा, जो प्रायः ख़त्म होती जा रही है, केवल विद्यार्थी को जड़वत अच्छाई और बुराई का भेद बताते हैं । परन्तु चारित्रिक शिक्षा या चरित्र निर्माण, जो मूलतः पारिवारिक परिवेश से आता है, विद्यार्थी को अच्छाई बरक़रार रखने के रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को आत्मसात करना सिखाता है ।
आज देश को पैसे से कहीं ज़्यादा अपने युवाओं के चरित्र निर्माण की ज़रूरत है जो हमारे नौनिहालों से शुरु होती है ।
चरित्र निर्माण से लालसा रहित कर्मठता पैदा होती है जो देश की आर्थिक समृद्धि और मानव मूल्यों की रक्षा में सहायक होगा ।
बहुत बड़ी विडम्बना है कि १९९० में भी सुनता था की दुनिया दिन पर दिन ख़राब होती जा रही है और आज २४ साल बाद २०१४ भी यही सुनने को मिलता है । इससे भी बड़ी विडम्बना की पिछले २४ सालों से मैं हमेशा ही यह अख़बारों के जरिए ख़बर पाता रहा हूँ कि हमारी सरकार और हमारे ग़ैर सरकारी संस्थान सभी इस ओर महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं। लेकिन फिर भी दुनिया ख़राब होती ही जा रही है। आखिर इसका कारण क्या है ?
यह तो रही मेरे अब तक के जीवन की दृस्टि में। जबकि १००-१५० सालों पहले से ही, जो कि भारत, यूरोप और अमेरिका के सामयिक इतिहास और ऐतिहासिक कहानियों से विदित होता है, इस तरह की दशाएँ मौज़ूद थीं। धन और शक्ति हमेशा से मानव जीवन के बुद्धि पर हावी रहे हैं। यह कोई गलत बात भी नहीं है। अपने गृहस्थ आश्रम में धन, शक्ति और ऐश्वर्य को वेदों में भी प्राथमिकता प्राप्त है। तो हमसे चूक कहाँ हो गयी ? चूक हुई और वह यह की हम इस प्राथमिकता को तो स्वीकार कर लिए लेकिन गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के पहले जो नैतिकता और ज्ञान का पाठ पढ़ना चाहिए उससे हम विमुख हो गए।
अगर हम निरा मानव मनोविज्ञान को समझें तो पाएंगे कि हर युग में ऐसे लोग हुए हैं जो समाज को गन्दा करने में विश्वास रखते थे। सामान्यतः किसी समय पर समाज में १५% लोग इतने ईमानदार होते हैं कि उनकी ईमानदारी को किसी भी हालत में कोई भी कारण देकर डिगा नहीं सकते और १५% लोग ऐसे होते हैं जो हमेशा बेईमानी ही सोचते हैं और उन्हें कितना भी समझाया या डराया जाय वो अपनी बेईमानी नहीं छोड़ सकते। लेकिन समाज की अच्छाई और खराबी इनसे सम्पादित नहीं होती। समाज की अच्छाई उन ७०% लोगों से सम्पादित होती है जो दण्ड के आभास से ईमानदार हो जाते है (या ईमानदार बन जाते हैं) और दण्ड के अभाव में बेईमान बन जाते हैं। सामाजिक व्यवस्था इन्ही के लिए बनी है। (नीचे दिए गए ग्राफ से यह विदित होता है)
आज के परिवेश में हम यह पाते हैं कि बेईमानी को कोई दण्ड नहीं मिल रहा है और यही कारण है की उन ७०% लोगों में से बहुतेरों के मन से सामाजिक व्यवस्था से वह दण्ड का आभास ख़त्म हो गया है। इस कारण उन्हें अपने स्वार्थ के लिए किसी भी गलत काम करने में कोई संकोच नहीं होता क्योंकि उन्हें यह पता लग गया है कि ऐसा तो होता ही है और चलन में है। यहाँ तक की उनके अंदर गलत को गलत समझने की शक्ति भी चली गयी है। इस वजह से उन ७०% लोगों में से बहुत ज्यादा प्रतिशत ईमानदारी के अंतिम छोर में शामिल हो गए हैं। कोई भी सामाजिक व्यवस्था तभी तक चल सकती है जब तक व्यवस्था को मानने वालों की संख्या बहुतायत हो, नहीं तो व्यवस्था का टूटना या भंग होना निश्चित है।
इसलिए भारतवर्ष की नई सरकार से यही अपेक्षा है की कम से कम देश में ऐसी स्थिति को पैदा करे जिससे कि लोगों की इस व्यवस्था में फिर विश्वास कायम हो और गलत काम करने के पहले एक बार उस कृत्य के असर, अपने ऊपर या समाज के ऊपर, का आभास जरूर हो।
हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति में साफ़ साफ़ विदित होता है कि शास्त्र और शस्त्र की विद्या दोनों ही एक साथ दी जानी चाहिए। शास्त्र विद्या मानवीय सच्चाई, मानव जाति की उत्पत्ति का कारण, समाज में एक समरसता, धर्म , नीति इत्यादि को समावेशित करता था । जबकि शस्त्र विद्या स्वरक्षा, धर्म रक्षा, मानव कल्याण और राज्य की रक्षा से प्रेरित था। शस्त्र निपुणता हमें शक्तिशाली जरूर बनता है परन्तु शास्त्र विद्या के अभाव में यही शक्ति हमें मानवता से दूर अपने को सर्वशक्तिमान के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रेरित भी करती है।
महाभारत में एकलब्य से द्रोणाचार्य का अंगूठा मांगना भी ऐसे ही सोच से प्रेरित प्रतीत होता है। एकलब्य ने अपने को धनुर्विद्या में तो निपुण कर लिया था परन्तु द्रोणाचार्य को यह पता था कि उसे शास्त्र ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है और मानवजाति को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पद सकते हैं ।
आज के परिवेश में हम यही देख रहे हैं कि हमारी स्कूली शिक्षा हमारे देश के बच्चों को बस उनकी जिंदगी में आने वाले जद्दोजहद से दो चार होने और उस पर विजय पाने के लिए सभी शस्त्र मुहैया कराने का दावा करती है। आज के स्कूलों और कॉलेजों के विज्ञापन इस तथ्य को सर्वथा उजागर करते हैं। क्षेत्रीय भाषा, इतिहास, भूगोल, दर्शन, धर्म, राजनीति, नैतिक मूल्य इत्यादि जिंदगी में आगे बढ़ने की परिभाषा में कहीं भी कोई योगदान नहीं दे रहे हैं। आज यही बच्चे बड़े होकर जब अपने शस्त्रों (प्रौद्योगिक दक्षता, वाक्पटुता, मैनेजमेंट स्किल, व्यक्तित्व विकास, शरीर सौष्ठव, लीडरशिप स्किल इत्यादि) से लैस दुनिया रुपी रणभूमि में पहुंचते हैं तो शास्त्र विद्या के अभाव में जिंदगी के मायने ही समझने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं।
इसी क्रम में एन केन प्रकारेण हमारी अपने को सबसे ऊपर देखने की इच्छा देश के आगे भयावह स्थिति खड़ा कर चुका है या कर सकता है। इस अधूरी विद्या को जितनी जल्दी हो सके एक सम्पूर्ण विद्या में परिवर्तित करने की आज देश को जरूरत है। अन्यथा हम कुछ भी कर लें देश के अच्छे दिन हमसे दूर होते जायेंगे।
घर का बड़ा बेटा था
जिम्मेदारियों से दबा था
जिंदगी के किसी मोड़े पर एक हमसफ़र की आस थी
इसी से जिंदगी बस थोड़ी सी निराश थी
जब हम पहली बार मिले थे
मन की वादियों में फूल से खिल उठे थे
हम विवाह बंधन में बंध चुके थे
हमारी जिंदगी को कुछ मायने मिल गए थे
एक साल का साथ देकर
आप सुदूर चले गए हमें छोड़कर
अब जिंदगी अकेले जीता हूँ
बस आपकी यादों को तराशता हूँ
अब पचपन के पार हूँ
बस अपने दिल को स्वीकार हूँ
अब कुछ दिनों की बात है
फिर तो स्वर्ग का ही आत्मसात है
तब जब हम फिर मिलेंगे
स्वर्ग की वादियों में फिर से फूल खिलेंगे
I would first let you know our understanding of values followed by how these values can be imparted to our little jewels. We know that children of today will be at the centre stage, as they grow up, in determining social, cultural, scientific and technological upliftment of the country. This will require them to be a responsible citizen of the country with mental and emotional maturity to deal with the difficulties and setbacks they might face in their life. This requires a true philosophical and spiritual basis too. Therefore, parenting is to create a strong foundation of ethical and moral principles in the childhood so that they can build upon these values, as they grow, to become a matured (mental, emotional and analytical) and responsible human being.
If parents don’t accept this responsibility, then the void may be filled by negative forces that do not support healthy morals and ethics for our families and society.
At tender age of up to around 10-12 years, there are basically two learning centres (School and home). The school and teachers do their best to impart such values, knowledge and discipline.
But, what about home? Children emulate their parents, particularly in imbibing moral values. However, their intelligence, likings, interests may differ. Therefore, we have to ensure that we personally have all those values that we want to inculcate in our children (i.e. LEAD BY EXAMPLE). If we want our children to grow up to be respectful, compassionate and honest, we need to first strive for these qualities within ourselves. The children should not witness a contradiction between school teaching and the values exemplified at home. Our lessons can quickly be forgotten if our children watch us contradict what we try to teach.
It is therefore an imperative for parents to strive for developing values in themselves before they educate or expect such value inculcation in their children.
Values we need to impart to our children through our examples: (WE DON’T DO TO OTHERS WHAT WE DON’T WANT FOR US)
1) Courtesy and respect: Do not respect people based only on power, money and muscle power (This has become a norm today). Respect people as human beings, whatever economic or social strata they belong to. Respect women (their individuality, identity, emotions) and make your wife and daughters equal partners in family decisions. See how we treat our domestic help and people around us.
2) Honesty: Be honest in your deeds and let it reflect in your actions. Listen to children and applaud them for telling the truth. Yelling at children make them fearful and then they start telling lies.
3) Puctuality and dependability: Practice punctuality and keep promises. If you are not able to do that sometimes, this needs to be with due permission from or persuasion of the concerned person (i.e. children) well within time.
4) Responsibility: Responsible adults make their children responsible. Take responsibility for both the good and bad actions you do. This helps your children learn not to blame others for things they have done wrong. Make your children to do house chores e.g. cleaning, helping parents in kitchen, making their beds, ironing their clothes, helping elderly family members etc. Allow them enjoy independence as per their age and take decisions on their own.
5) Let them make their own path: Parents are not for making children’s life easier or luxurious. Their job is not to be in front and give their children a smooth path. They are expected to equip their children with all the tools necessary so that they can make their own path smooth. Love your children (show emotions and provide) but only to the extent that your love does not spoil them.
6) Hobby: Make them develop a reading habit and befriend with books. You too have to have this habit. Do not restrict only with physics, chemistry, mathematics, biology and commerce. Make them read history, literature, sociology, classic children’s novels, philosophical discourses and religious books too. Allow them enough time for outdoor games for their physical fitness.
7) Engagement: Spend quality time with children through outdoor or indoor activities, teaching lessons, talking about values, talking about family decisions and their bases, cooking together, reading stories and discussing, watching television together, so on and so forth.
After making all the efforts and fulfilling our responsibilities, we have to leave other things on what God has in store for all of us.
Speech in a school
हमारा जिला प्रसाशन हर सामाजिक समस्या के निराकरण के लिए अभियान चलाता है जैसे कि स्कूल की गाड़ियों में कितने बच्चे, ड्राइविंग लाइसेंस, पौधारोपण, यातायात सुधार, अतिक्रमण, हेलमेट परीक्षण, बस परमिट आदि। लेकिन यह देखा गया है की जैसे ही अभियान समाप्त हुआ, सब जस का तस। दुकानें फिर वैसे ही अतिक्रमण करती हैं, लोग बिना हेलमेट के ही चलते हैं, स्कूल की गाड़ियाँ फिर क्षमता से ज्यादा बच्चे ले जाती हैं, यातायात में कोई सुधार नहीं होता। अब प्रसाशन क्या करे ? कोशिश तो पूरी करते हैं, वह भी खासकर तब जब तीज त्यौहार का पर्व नजदीक हो। कहते हैं कि कितने भी अभियान चलाते हैं लेकिन जनता है कि सुधरती ही नहीं। अब इनको कौन समझाए कि भइया या तो जनता गीता का अनुसरण करे तब आपकी बात समझेगी या फिर उसके ऊपर निरन्तर आपका कड़ा पहरा रहे। गीता के एक भी अध्याय के अनुसरण की आशा रखना तो बेमानी होगी, खासकर आज के नाच-गाना को तवज्ज़ो देने वाले समाज से। अब बचा आपका कड़ा पहरा। लेकिन आप तो बस कुछ दिनों का अभियान चलाकर मुक्ति पाना चाहते हैं और बाकी समय सभी को नियमों का धता बताने के लिए खुला छोड़ देते हैं।
हमें पता है कि आपके पास इतने संसाधन नहीं हैं कि आप अभियान से ज्यादा कुछ कर पाएं। लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि नियम सबको पता है, सही गलत का अंतर सबको पता है और सभी समझ गए हैं कि पकडे जाने पर कुछ ज्यादा होना नहीं है और पकड़ने वाले तो बस अभियान में ही सक्रिय होते हैं। यह नियम का उल्लंघन सिर्फ और सिर्फ मनोवैज्ञानिक कारणों से होता है। क्योंकि उसी नियम तोड़ने वाले को जब खुद को परेशानी होती है तो वही कहता है कि यह तो नियम के विरुद्ध है।
तो अब लोगों को नियम मानने के लिए बाध्य कैसे करें? एक बहुत ही मामूली सा उदहारण लेते हैं। शहर में ५ किलोमीटर का रास्ता तय करने में करीब २५-३० लोग गाड़ी चलाते समय फ़ोन पर बात करते हुए मिल जायेंगे, जबकि हर को पता है की ऐसा नहीं करना चाहिए। यह करते हुए तथाकथित संभ्रांत लोग ज्यादा दिखते हैं। इस समस्या के समाधान के लिए बस एक काम करना है। आप अपने अच्छे अधिकारियों में से पाँच को सादे लिबास में सड़कों पर छोड़ दीजिये और कह दीजिये कि रोज हमें कम से कम १० मोबाइल पर बात करने वाले केस, ५ तेज रफ़्तार के केस, ५ ट्रैफिक लाइट का उल्लंघन का केस और ५ गाड़ियों के धुआँ उगलने के केस रसीद के साथ दीजिये। इस नियम को बनाने के बाद समय-समय पर इसका पुनरीक्षण भी करें और कार्यान्यवन में किसी बाधा को ठीक भी करें। हाँ, इसमें पहली शर्त होगी कि आप सचमुच सुधार लाना चाहते हैं। इन सभी के नामों को रोज एक दैनिक में छपवाइए। इस प्रक्रिया में आपका संसाधन भी कम लगा, सरकारी खजाने में बढ़ोतरी भी हुई और नियम तोड़ने वालों को दंड भी मिला। इसी तरह आप हर उस क्षेत्र में काम कर सकते हैं जहाँ नियम के पालनकर्ताओं की कमी होती जा रही है।
सबसे बड़ा काम यह हुआ कि आपने लोगों के अंदर एक बड़ा मानसिक परिवर्तन किया और वह यह कि नियम तोड़ते हुए पकड़ लिए गए तो दंड मिलेगा ही। धीरे-धीरे जब यह बात जनता की आदत में शुमार हो जाएगी तो आपको ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ेगी और समाज में एक अलग तरह की सोच उभरेगी जो हमारी अगली पीढ़ी के लिए भी अच्छी होगी।
आज इस बहुचर्चित दूरदर्शन ड्रामा का अंत हो गया। मीडिया, बॉलीवुड स्टार्स, प्रतिभागी, मोबाइल फ़ोन कंपनियां आदि ने खूब कमाई की। समय समय पर कुछ जाने माने लोगों को लाकर ड्रामे को चित्ताकर्षक बनाने की कोशिश भी की गयी। यह सब एक पूँजीवादी और खुले बाज़ार में स्वीकार्य है। समाज ने खुले बाज़ार को तो अपनाया है लेकिन अभी तक खुले तौर पर अश्लीलता को नहीं स्वीकारा है और न ही अश्लीलता में संलग्न पात्र को क्षमा करने कि शक्ति ही जुटा पाई है। यह सामाजिक अक्षमता समय समय पर पूरे देश में देखने को मिल जाया करती है। पश्चिमी दुनिया में भले ही अश्लीलता को व्यवसाय के नाम पर अश्लील पात्रों को सम्मानित और प्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हों, लेकिन भारतीय समाज में तो ऐसा नहीं था। तब यह कैसे हुआ कि एक पश्चिमी पोर्न स्टार को यहाँ पर इतना सम्मान मिला। सम्मान का मतलब इतना तो होता ही है कि सभी आपके आगे पीछे हों, आपकी एक हंसी के इंतज़ार में हो, आपके विचारों और वक्तब्यों को सुनने कि इच्छा हो, आप किसी न किसी रूप में उनके आदर्श हों आदि आदि। एक पोर्न स्टार के लिए इतना सम्मान दूरदर्शन पटल पर साफ़ दिखाई दिया, जो कि समाज और पूरा देश देखा। जिन बॉलीवुड स्टार्स को एक बड़ा नौजवान तबका अपना आदर्श मानता है, वह भी इस बाला को इतना सम्मान दे रहे थे कि उस बाला कि महिमा अपरम्पार लगने लगी। जबकि उस बाला कि अपनी खुद कि आधिकारिक वेबसाइट उसकी अश्लीलता का पूरा बखान करती है। तब भी भारतीय समाज ने इस ड्रामे का बखूबी लुत्फ़ उठाया। और अगर अश्लीलता में इतने खुले रूप में संलग्नता होने के बावजूद कोई हमारे समाज में इस मुकाम तक अर्थात इतना सम्मान पा सकता है तो क्यों न हमारे नौजवान इस रास्ते को चुनेंगे। मानवीय फितरत में तो सम्मान पाना एक बहुत ही बड़ा उद्देश्य बन जाता है। यह बात अलग है कि यह उनकी खुद कि समझ पर निर्भर करता है। और भारत में तो दुनिया के सबसे ज्यादा नौजवान हैं। अब हमको देखना है कि हम अपने देश के इतने बड़े हुजूम को, जो कि हमारे देश को नयी दिशा दे सकता है, किस दिशा में भेजना चाहते हैं।
National science day is celebrated to commemorate the achievement of Sir CV Raman when he discovered the ‘Raman Effect” on 28th Feb 1928, for which he also got the Noble Price. This was the achievement of the character and personality he had. Therefore, when we celebrate this day, we must prepare our mind to imbibe this noble character what he possessed. The purpose of this celebration is not only to widely spread among the people of the country the importance of science but also the discipline, inquisitiveness, perseverance, truthfulness, sincerity and love for the country ingrained in such a personality.
Here, it is important to first understand what is Science? Science is a logical thought process that ends up in generation of new knowledge, which includes hypothesis, experiment, observation, analysis and finally new knowledge. A systematic study of something. Therefore, science does attempt to understand material things and also the intangible aspects of life such as society, economic, psychology, politics etc. Today we generally see physics, chemistry and biology as science subjects but we do not give too much value to the science of human behaviour, their response to changing social phenomenon etc. We have to apply, therefore, a scientific temperament in every walk of our life. Humanities (the science of human or mass behaviour) have become an unavoidable science in the present social scenario. As we can see different material aspects through various instruments and can be visualized and touched, we generally believe this to be science but it is not true.
Why should we spread the message of importance of science among students, teachers, parents? A nation is known by its character, the brand value. The national character is made by the people of the country and therefore we need to build our own character first which will automatically manifest in national character. Please see India from a perspective where scientific temperament is imbibed within the national character.
Look at a child. He comes to this world without any knowledge. But mother nature wants it to survive in this new environment, this is why it is born. Now, its survival depends upon how fast it gathers new knowledge of this world. This is the God’s gift to it i.e. inquisitiveness and perseverance. In the infancy it does many things which parents are afraid of and restricts it to attempt. But what happens, they cry so ferociously as if they are going to die next moment, the psychological effect, just for having the knowledge it wants to gather. This is why we say that children have the temperament for science. This means our mind is scientific from the very beginning. So the true quest for knowledge is Science.
The most important personal traits for this thought process is inquisitiveness of human mind and perseverance to know more and more, which is opposite of ignorance.
What science does to the life of human being? Yes, Science is a ladder for change. Create new knowledge, use this knowledge for the betterment of human life. All the new technologies we are witnessing are the testimony that so many people have gone through such a perseverance for quest for knowledge have come out with physical and chemical principles which ahs been used for the new technologies in medicine, materials, aerospace, transportation, agriculture for the benefit of the mankind.
How fast is the process of generating new knowledge? It takes time. But the possibility increases if we have more and more number of people engaged in such endeavors. How will it come? By inculcating such scientific temperament in the people. The primary aim is therefore the children in every part of the country. Who are responsible for doing this? Obviously, the teachers. The teachers have to be aware of child psychology so as to bring out maximum from them and this requires freedom of thought. You are the budding teachers and the onus is on you to prepare yourself for the task and deliver to the country the people with scientific temperament. This can be achieved by developing the following in schools: openness in our behaviour with students, encouraging them to ask questions, developing a personal rapport etc.
World Quality month is celebrated every year in November and the sole purpose is to increase awareness of the importance of quality, be it in any sphere.
Your organisation is celebrating this event and it is a testimony that you are quality conscious and committed towards it.
Many quality management approaches are known to people. Some of them are concerned with macro-management to achieve quantitative goals and customer satisfaction, while others instil a culture of continuous and consistent high performance.
In my opinion, however, quality is a phenomenon that happens to the individual, society, organisations and the nation. It manifests itself in individual happiness, social upliftment, organisational well being and growth and ‘Brand value of a nation’.
‘Made in …Japan, China, India, Bangladesh, America…Germany….’. It is a very common perception that as an individual we prefer the products/services/people/nations, which shows its quality and has made a brand value.
We must realise that every behaviour of ours/product of our country/organisation that carries ‘Made in India' / 'your organisation’ also carries the respect and dignity of each of the citizen/employee. Therefore, we must strive to make finest products to the best of our ability.
Therefore, the quality and its consistency is not only an individual’s responsibility, it is the responsibility of each and every stakeholder. Every employee of the organisation, customers and suppliers are the stakeholders. Quality is a habit /a phenomenon that has to happen to each one of us. And this starts with an individual and culminates into our family, our organisations and finally the country.
The nations which we see today as developed ones have gone through such a phenomenon in the society, which has given them that brand value. It is worth pondering as to what stops our country to become developed despite vast resources and social capital, we have >65% people less than the age of 35. This is the lack of quality management of self i.e. not implementing TQM on ourselves. Rules and guidance are already in place given by ancient Indian philosophy. We need the followers.
Speech in an manufacturing organisation
संस्कार क्या है ? जब भी हम संस्कार की बात करते हैं तो मस्तिष्क में व्यवहार संस्कार, विवाह संस्कार, गर्भाधान संस्कार, अन्तेष्टि संस्कार इत्यादि आते हैं। इसका सीधा मतलब हम कर्मकाण्डों या रीति रिवाज़ों से समझते हैं। लेकिन क्या इसे ही संस्कार कहते हैं ? नहीं, बल्कि इन्हे मनुष्य की भावनात्मक शुद्धिकरण के लिए अपनाये गए अलग-अलग धार्मिक विधि कहते हैं। 'संस्कार' शब्द का मतलब 'शुद्धिकरण' तो होता है, परन्तु किसका शुद्धिकरण ?
अगर हम वेदांत के परिपेक्ष्य में समझें, तो हर जीव मरने के समय अपनी स्थूल शरीर तो छोड़ देती है पर उसकी मनःस्थिति और इस जीवन की यादें साथ रहती हैं और जीवित रहती हैं। देहावसान के पहले की उसकी मनःस्थिति और यादें, जो उसके कर्मों को प्रभावित करती थीं, उसे ही हम उस जीव का संस्कार कहते हैं। यह मनःस्थिति ही उसके चित्त और वृत्ति को परिभाषित परिभाषित करते हैं। आज के हमारे सभी कर्म इन्ही संस्कारों से व्यवस्थित होते हैं। जब आत्मा फिर से जन्म लेती है तो नवजात के अंदर उसके पूर्वजन्म के सभी संस्कार विद्यमान होते हैं। उदाहरणार्थ, दो जुड़वाँ बच्चे भी एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न हो सकते हैं जबकि उनकी जन्म के पहले और तुरंत बाद की स्थितिओं में कोई भिन्नता नहीं होती।
जुड़वा नवजात जैसे-जैसे बड़े होते हैं सबसे पहले उनकी अपने माता-पिता के साथ परस्पर भावनात्मक आदान - प्रदान की प्रक्रिया शुरू होती है। अब माता - पिता तो दोनों बच्चों से समान व्यवहार करते हैं (ध्यान रखना, प्यार करना, पालन पोषण वग़ैरह) लेकिन बच्चे अपने - अपने संस्कारों (पूर्वजन्म के) से प्रभावित होकर उन्हें प्रतिक्रिया देते हैं। इस प्रतिक्रिया को माता - पिता अपने संस्कारों (इस जीवन में अब तक के विकसित संस्कार) के आधार पर वर्णित करते हैं और अपने समझ से प्रतिक्रिया देते हैं। उदाहरणार्थ, किसी बात पर एक का प्रतिक्रिया गुस्सा होता है तो दूसरा बहुत ही सहनशीलता दिखता है। आखिर अंतर कहाँ है? एक जैसी दशाएँ, एक तरह का घर का माहौल, वही माता - पिता, वही घर; फिर इतना अंतर क्यों?
हमारे जीवन में पारस्परिक क्रिया - प्रतिक्रिया का सिलसिला निरंतर चलता रहता है और सभी मनुष्य एक दूसके के संस्कारों को अपने प्रतिक्रियों से बनाते चलते हैं। घर में माता - पिता, भाई - बहन तथा अन्य पारिवारिक सदस्यों से शुरू होकर हमारे संस्कार बाहर की दुनिया से टक्कर लेने निकल पड़ते हैं और साथ - साथ अपने आपको क्रिया - प्रतिक्रिया के तहत परिष्कृत करते रहते हैं। भारतीय दर्शनानुसार, किसी व्यक्ति द्वारा किये गए सभी कार्य, उसके अभिप्राय और उसके कार्यफ़ल उस व्यक्ति के मन की गहराइयों में एक छाप छोड़ते हैं और यही छाप उसके संस्कारों को बनाते हैं, अर्थात, उसके आज तक के कार्य और कार्यफल के छाप के अंतर्गत ही वह अपने कल की प्रतिक्रिया को निर्धारित करता है। यह प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है और हम अपने संस्कारों को इस जीवन रूपी रास्ते में बनाते चलते हैं। यही आज के संस्कार हमारे कल के कर्मो को निर्देशित करते हैं।
जमशेदपुर झारखण्ड राज्य में एक छोटा पर बहुत पुराना औद्योगिक शहर है। औद्योगिक होने के कारण उसकी आबो-हवा में भी इसकी छाप है अर्थात वायु और जल प्रदूषण।
कुछ दिनों पहले विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। जमशेदपुर के दैनिक अख़बारों में अनेकानेक चित्र प्रकाशित हुए जिसमें विभिन्न प्रकार के संघ, समाज, समिति, मोर्चा, दल, विद्यालय, सरकारी कार्यालयों के सदस्य पौधारोपण करते दिखाई दिए। अाज क़रीब एक हफ़्ता बीत गया, पता नहीं कि उनमें से कितने पौधों ने अपनी आगे की जीवन लीला जारी रखी होगी।
लेकिन उसी शहर में आज पुराने ट्रक और डीज़ल आधारित तीन और चार पहिया वाहनों के धुएँ से सड़कें कभी-कभी काली दिखने लगती हैं। चूँकि शहर देश के बड़े शहरों में शुमार नहीं है इस प्रदूषण की सुध शायद ही किसी को हो, होगी भी तो परिलक्षित नहीं होती है। हम चेतेंगे ज़रूर लेकिन समय निकलने के बाद, जैसा कि बड़े-बड़े शहरों में देखा गया है अर्थात दिल्ली, मुंबई, कानपुर इत्यादि।
लेकिन ऊपर बताए गए सभी संघ, समाज, समिति, मोर्चा, दल आदि अगर सच में पर्यावरण के प्रति जागरूक हों तो इस समस्या का निदान निकल सकता है। हवा, जल और ज़मीन की शुद्धता हमारे लिए एक सामाजिक ज़िम्मेदारी बना दी जाए और इसकी अवहेलना करने वालों को हिक़ारत की नज़र से देखा जाय। सभी को एकजुट होकर इसे एक क्रान्ति के रूप में सड़क पर लाना होगा, अन्यथा पौधारोपण बस एक राजनीतिक औपचारिकता बनकर ही रह जाएगी।
मानव प्रकृति या कहें व्यवहार अकेले में एक और भीड़ में अलग होता है। इस व्यावहारिक परिवर्तन का पहला कारण यह है कि अकेले में किया हुआ कोई कार्य उस मनुष्य के खुद की जिम्मेदारी होती है जबकि एक भीड़ में उसके व्यवहार को कई लोग मिलकर प्रभावित करते हैं। किसी गलत कार्य की सज़ा अगर अकेले को मिलने वाली है तो एक डर का एहसास मनुष्य के अंदर बना रहता है। लेकिन अगर गलती एक भीड़ ने की है तो भीड़ के सभी लोग जिम्मेदार माने जाते हैं और इस तरह से मनुष्य को लगता है कि जो होगा सबके साथ होगा, लोग बचने की कोशिश तो करेंगे ही, इतने लोगों को एक साथ सज़ा तो नहीं हो सकती, उसकी पहुँच तो बहुत ऊपर तक है हम बच ही जायेंगे। इसके अलावा, ऊपर दिए गए कारणों की वजह से, भीड़ में उन्माद पैदा किया जा सकता क्योंकि भीड़ का इकठ्ठा होना और उसके प्रयोजन को किधर भी मोड़ा जा सकता है। अभी कुछ दिनों से समाचार आ रहे हैं कि भीड़ ने अलग-अलग राज्यों में कई लोगों को इतना पीटा कि उनका देहांत हो गया। एक विचारधारा यह आ रही है कि व्हाट्सएप्प एक ऐसा माध्यम बनता जा रहा है कि लोगों को अफ़वाह फ़ैलाने में सहूलियत मिल रही है और भीड़ को इकठ्ठा करना तथा उन्माद जगाना आसान बन गया है। समाचार यह भी है कि इन सभी हत्यायों में ख़ासकर बच्चाचोर क़रार देकर लोगों को मारा गया है।
एक लोकतांत्रिक देश में इस तरह के व्यावहारिक उत्पत्ति का क्या कारण हो सकता है? क्या मानव की यही प्रवृत्ति है? क्या यह उसका प्राकृतिक व्यवहार है ? अगर ऐसा होता तो इस तरह के व्यवहार को सब लोग सराहनीय दृष्टि से क्यों नहीं देखते ? क्यों इस व्यवहार को चारों तरफ नकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जा रहा है? इसका सीधा मतलब है कि प्यार में विश्वास रखने वाला सम्पूर्ण प्राणी जगत (और इसके साथ मनुष्य भी) इस तरह के भीड़ तंत्र में विश्वास नहीं रखता होगा। तब बात आती है कि ऐसा मनुष्य चरित्र तब कहाँ से पैदा होता है और उन लोगों की क्या सोच होती होगी जो ऐसे कृत्यों को कर गुजरने में कोई गुरेज़ नहीं करते।
श्रीवास्तव जी अनायास ही आज बेचैनी से घिर गए। बड़ी बेटी वैष्णवी जवानी की दहलीज़ पर कदम रख रही थी और अब शिक्षा की तलाश में उसे घर के सुरक्षित चारदीवारी को छोड़कर जंगलरुपी निर्मम प्रतियोगी दुनिया से लोहा लेने उतरना पड़ेगा। उधर छोटी बेटी अनाहिता बस कहने को ही छोटी रह गयी थी, उसका शारीरिक उत्थान और श्रीवास्तव जी की माली हालत हमेशा एक दूसरे को मुँह चिढ़ाते। उनकी बेचैनी का कारण बस एक ही था, या तो अपने दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दें या फिर उनकी शादी के लिए कुछ धन जुटा कर रखें। अपनी छोटी सी तनख्वाह को देखते हुए वह समझ गए थे कि बेटियों की शिक्षा और शादी दोनों में उन्हें एक चुनना पड़ेगा। जब भी बच्चियों के मुँह देखते, उनके जेहन में दो समानांतर भावनाएँ उद्धृत होती थीं, 'प्रसन्नता' कि बच्चे चरित्र और शिक्षा में अव्वल थे परन्तु 'क्षोभ' कि दहेज़ के दानव के दमन लिए वे अपने आप को असमर्थ पाते थे।
उस दिन वैष्णवी ने घर में कदम रखते ही कहा, " बाबू जी! आज मैंने विश्वविद्यालय की बी.ए. की परीक्षा अव्वल दर्जे में उत्तीर्ण कर ली है"। श्रीवास्तव जी ने दोनों बेटियों को इस तरह बाहों में भर लिया जैसे उनकी सारी संपत्ति, भावनाएँ या कहें सारा संसार उन्हीं दोनों में समायें हों। उस दिन तीनों मिलकर उस दिवंगत गृहणी, जिसे इस दिन का हमेशा इंतज़ार रहा था, की दीवार पर टंगी तस्वीर के सामने आकर खड़े हो गए और उनके आँखों से अविरल अश्रु-धारा बह निकली। यह उस पत्नी और माँ के लिए एक भाव भीनी श्रद्धांजलि थी।
श्रीवास्तव जी एक सरकारी दफ़्तर में वरिष्ठ लिपिक के पद पर पिछले दस सालों से विद्यमान थे। उनका बचपन एक निम्न आय परिवार में बीता था। उनके पिता एक माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक थे और अपनी सभी जिम्मेदारिओं को निभाने के बाद परिवार के लिए इतना ही ला पाते थे कि बस दो जून की रोटी मिल सके। श्रीवास्तव जी के कुल छः भाई-बहन थे। पारिवारिक कठिनाइयां सभी बच्चों को एक प्रकार से दृढ़ और तटस्थ बना चुकी थीं, जो उन्हें हमेशा उन कठिनाईओं से जूझने और कर्म के बल पर आगे के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए प्रेरित करती थीं। यहीं से श्रीवास्तव जी शाश्वत जीवन दर्शन और निर्मम ईमानदारी का पाठ पढ़े थे।
श्रीवास्तव जी दफ़्तर में अपने काम के प्रति सजग थे। शायद उन्हें जनता के प्रति अपनी जबाबदेही का भान था और इसके साथ ही यह भी जानते थे कि जनता की भलाई में ही उनका और पूरे देश का उत्थान निहित है। वे श्रीमद्भगवद गीता के कट्टर अनुयायी थे। उनका विश्वास था कि श्रीमद्भगवद गीता के अट्ठारह अध्यायों में श्री कृष्ण द्वारा दिए गए ज्ञान का एक अंश भी अपने इस जीवन में उतार पाएं तो यह जीवन सफल हो जायेगा। इसी विश्वास को उन्होंने अपने बच्चों में भी जगाया था। उस पूरे परिवार को यही दो सूक्ति निर्देशित करती थी "कर्म हमारा, कर्मफ़ल परमात्मा का" और "अपने इन्द्रियों के सुख के लिए की गयी कोई क्रिया कर्म है ही नहीं" । उनका यही विश्वास उनके कशमकश का कारण था। जिसमें दूसरों के उत्थान के सिद्धांत के प्रति दृढ़ता हो उसमें, आज के भ्रस्ट, भोगी और उन्मादी समाज में, कशमकश तो होना ही है। क्योंकि समाज से परे तो बस परमात्मा ही रह सकता है, मनुष्य को तो समाज के साथ चलना ही पड़ेगा।
उस दिन श्रीवास्तव जी दफ़्तर में किसी संचिका में ध्यानमग्न थे, तभी उनका एक सहकर्मी एक ठेकेदार के साथ अवतरित हुआ और बोला "श्रीवास्तव जी ! साहब ने निर्देश दिया है कि इनकी संचिका अविलम्ब स्वीकृति के लिए अनुमोदित करके अग्रेसित की जाये"। श्रीवास्तव जी ने कहा "लेकिन इनकी संचिका के कागज़ात तो स्वीकार्य नहीं है। उनमें कई त्रुटियाँ विद्यमान हैं"। सहकर्मी ने खीझते हुए कहा "अरे आपको कितना चाहिए यह बताइये। ये साहब इतने दूर से आये हैं इन्हें क्यों परेशान कर रहे हैं"। श्रीवास्तव जी बात समझे और सीधा अपने साहब के कमरे में जाने के लिए उठ खड़े हुए। लेकिन यह क्या, साहब ने भी वही बात दुहरायी। लेकिन श्रीवास्तव जी तो अपने गीता के सिद्धांत से बंधे थे। उस संचिका को अनुमोदित करके वह जनता को धोखा नहीं दे सकते। इसी समय उन्हें अपने बच्चों के चेहरे सपने की तरह सामने दिखाई दिए, उन्होंने देखा कि उनकी दोनों लड़कियां चालीस पार कर गयीं हैं और अभी तक उनका विवाह नहीं हो पाया है। अपने बच्चों के प्रति प्यार, उनकी जम्मेदारी, उनकी अनुपस्थिति में उनका जीवन सब कुछ (सभी मानव जनित भावनाएं) आज श्रीवास्तव जी के सिद्धांतों के सामने भाले और बरछे लेकर खड़ी थीं। लेकिन श्रीवास्तव जी के सिद्धांत का तीर इतना मज़बूत था की सभी भाले और बरछे धराशायी हो गए। साहब भी इन सिद्धांतों के आगे नतमस्तक थे लेकिन श्रीवास्तव जी का तबादला उन्हें करना ही पड़ा।
श्रीवास्तव जी को सरकार प्रदत्त तनख्वाह के अलावा कुछ स्वीकार्य न था। समय बीता। बच्चे बड़े हुए, अच्छी शिक्षा पाए, पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहे और उनके चरित्र निर्माण में तो कोई कमी थी ही नहीं। बच्चे कहीं भी अच्छी तनख्वाह में नौकरी ले सकते थे लेकिन उन्हें तो अध्यापन का कार्य सबसे रुचिकर था। जब बच्चे कहते कि चरित्र और विद्या में पारंगत होने के बाद सबसे अच्छा कार्य तो अध्यापन ही है, तो श्रीवास्तव जी फूले नहीं समाते थे। लेकिन कसक बस इतनी थी कि इस सोच को क्या हमारा समाज समझ सकेगा। वहां तो भोग-विलास, धन, सत्ता और बाहुबल ही सम्माननीय हो गए हैं। लेकिन फिर उन्हें गीता सिद्धांत याद आते और कहते कि तुम्हारे विवेक से तुम्हें जो रुचिकर लगे वही करो, इस द्विभाषी समाज की फिक्र मत करो।
दोनों बेटियों के विवाह की मंशा लिए श्रीवास्तव जी ने बहुत जगह चर्चा चलायी, लेकिन पुत्रियों के लिए योग्य वर मिलने पर दहेज़ देने की असमर्थता आड़े आती थी। बाक़ी पुरुषों से विवाह करने से, जहाँ दहेज़ की मात्रा थोड़ी कम होती, पुत्रियों के वज़ूद और भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता। ऐसे करते करते लड़कियां चालीस पार गयीं और यह विश्वास हो गया कि वर पक्ष में योग्यता और सिद्धांत दोनों मिलना बहुत मुश्किल है। इसी बीच एक दिन अचानक श्रीवास्तव जी के सीने में दर्द उठा और आनन - फानन में वह स्वर्ग सिधार गए। जाते-जाते उन्होंने दोनों पुत्रियों से कहा "मनुष्य द्वारा गढ़े हुए अप्राकृतिक रिवाज़ों की जन्मदात्री लालच है, इन रिवाजों से परे नैसर्गिक या प्रकृति प्रदत्त अधिकार खुद से हासिल करना पड़ता है। तुम अविवाहित रहकर दहेज़ के दानव के प्रतिकार का बीणा उठाओ। यही तुम्हारी नियति है"।
जब से सामाजिक व्यवस्था की शुरुआत हुई तब से समाज चार स्तंभों पर खड़ा है, राजा, प्रजा, व्यापारी और ज्ञानी। राजा के पास समाज जनित अधिकार, सैनिक और बल था। व्यापारी अपने आर्थिक फायदे के लिये अपने लगन और धन से राज्य में जरूरत के चीजों का व्यापार करता था। ज्ञानी अपने बौद्धिक शक्ति और विवेक से राजा और व्यापारी को सामाजिक भलाई के लिए सही रास्ता दिखाता था और प्रजा में अधिकतर वह लोग होते थे जो अपनी शारीरिक मेहनत से राज्य को उसके अभीष्ट में सहायता करते थे। इन चारों स्तंभों का बराबर महत्व होता है। किसी भी स्तंभ में लोभ, कर्तव्यहीनता, घृणा, कर्महीनता और घमण्ड का प्रादुर्भाव होने से सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने की आशंका होती है। मेरे समझ से इसी आशंका को चरितार्थ न होने देने के लिए राजा के दरबार में एक राजगुरु हुआ करते थे जो राजा को हर मुश्किल घडी में सही राजनीतिक और बौद्धिक सलाह दिया करते थे। यह सलाह अमूमन मानव जनित दुर्गुणों से दूर होने पर आधारित होता था। यह पूरी व्यवस्था समाज को सुचारू रूप से पोषित करने के लिए बनी थी। हर वर्ग को अपनी बुद्धिमत्ता और कर्मों के आधार पर अपने लिए रोटी का इंतज़ाम करना पड़ता था। इस पूरी व्यवस्था में हर वर्ग को अपनी अवस्था से संतुष्ट रहने की शिक्षा मिलती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ज्ञान, पराक्रम और परोपकारी सिद्धांत इस संसार में हमेशा सम्माननीय रहे हैं और रहने भी चाहिए।
मनुस्मृति में भी समाज को चार वर्णों में बांटा गया था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। सभी का काम ऊपर वर्णित तरीके से ही बनाया गया था। यह विभाजन संभवतः किसी के जन्म देने वाले परिवार पर निर्भर नहीं था। बल्कि उसके अपने ज्ञान और गुणों के बल और उसके काबिलियत के आधार पर किये जाने वाले कार्य पर निर्भर करता था। इस पूरी व्यवस्था में शायद यह कहीं नहीं कहा गया कि एक ब्राह्मण का कार्य देखने वाले परिवार का कुल हमेशा ब्राह्मण का कार्य ही करेगा। क्योंकि ब्राह्मण का कार्य ज्ञान पर आधारित था, और जब भी एक मनुष्य, भले ही वह किसी ब्राह्मण परिवार से ही क्यों न हो, ज्ञानार्जन के द्वारा ब्रह्म कार्य के लिए काबिल न हो उसे ब्राह्मण नहीं माना जा सकता। ठीक इसी प्रकार एक शूद्र भी अपने कर्मो के बल से ज्ञानार्जन करके ब्रह्म कार्य कर सकता है और ब्राह्मण कहलाया जा सकता है। इसलिए वर्ण व्यवस्था किसी को कर्म के आधार पर जीवन में अग्रसर होने से नहीं रोकती।
यह तो रहीं निरा दार्शनिक बातें। लेकिन असल जीवन में अनेकानेक मनोवैज्ञानिक कारणों और मानव जनित प्रवृत्ति की वजह से मनुष्य अपने धन लोभ, झूठा सम्मान और पारिवारिक स्नेह के चलते उन तमाम सामाजिक सिद्धांतों को दरकिनार कर देता है और अपने वर्चश्व को बनाये रखने के लिए ऐसा खेल रचता है जिससे कि उसके मातहत कभी भी उसकी बराबरी में आकर खड़े न हो पाएं। यह तभी संभव है जब उसके मातहत को कर्म करने और ज्ञानार्जन का मौका ही न मिले। और शायद यही वह कारण है जो हमारे समाज में इतनी बड़ी साज़िश के तहत जाति और छुआछूत जैसे निन्दनीय प्रथाओं का प्रादुर्भाव हुआ। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय समाज पर सदियों की इस त्रासदी से पूरा सामाजिक ख़ाका छिन्न-भिन्न हो गया है। आज के समय में इन प्रथाओं का समाज में विद्यमान होना हमेशा एक ही ओर इंगित करता है - हम आज भी मानव जनित प्रवृत्ति को अपने समाज में परोपकारी सिद्धांतों से बहुत ऊपर रखते हैं। जब तक हम सब एक दूसरे को अपना पूरक नहीं समझेंगे यह समाज आगे नहीं जायेगा। हमें समझाना होगा कि हमारा सच्चा उत्थान केवल हमसे नहीं बल्कि उन सबके साथ होगा। इसलिए हमें बस इतना करना है कि किसी को भी देश में ज्ञानार्जन और अच्छे कर्म करके सम्मान पाने में कोई रूकावट न आये।
सदियों से पुख्ता हुए इस भ्रष्ट आचार को जड़ से उखाड़ने के लिए कुछ तो समय देना पड़ेगा। लेकिन क्या हमें इसे बस समय पर छोड़ देना चाहिए? नहीं, मैं उन सभी जन प्रतिनिधियों से आग्रह करना चाहूँगा कि बस अब से आपके किसी भी भाषण में जाति का उद्घोष न हो। अब आप हमेशा बोलिये कि हम सब एक हैं और हमारी भिन्नता बस हमारी दशाओं में है, हमें ऊंच-नीच दशाएँ नहीं बल्कि हमारे गुण और दोष बनाते हैं। इन दशाओं को हम सब मिलकर अपने कर्मो से बदलेंगे।अगर हर जन प्रतिनिधि जनता में ऐसी बातें करने लगे तो जरूर समय के साथ यह एक सच्चाई में तब्दील हो जाएगी।
हमारे शहर में मैं देखता हूँ कि आये दिन एक नया समाज खड़ा हो रहा है। हर समाज की एक अलग पहचान बन रही है और इस समाज से उपजे प्रतिनिधि जन प्रतिनिधि के रूप में उभर रहे हैं जो आने वाले दिनों में शायद हमारे विधानसभा और लोकसभा की ओर भी रुख करें। अगर जन प्रतिनिधि विभाजन के बल पर हमारे कर्णधार बन रहे हैं तो इसमें दोषी हम हैं वह तो बस अपने मानव प्रवृत्ति को चरितार्थ करने में लगे हुए हैं।
इसके साथ मैं सभी माता-पिता से भी गुजारिश करना चाहूंगा कि अगर अपने बच्चों का भविष्य अच्छा देखना चाहते हैं तो कृपा करके उन्हें जाति जैसी भ्रामक धारणा के चक्कर में न उलझाएं। अलग-अलग हम कहीं नहीं पहुँच पायेंगे।